नटराज की मूर्ति के प्रमुख विशेषताओं .
नटराज की मूर्ति चोलकाल की सर्वप्रमुख कृतियों में सम्मिलित यद्यपि नटराज की कुछ मूर्तियाँ चालुक्य काल से भी संबंधित है। तथापि मुख्य रूप से इसका विकास चोल काल में ही देखने को मिलता है। नटराज का अर्थ है 'नृत्य का स्वामी'। यह भगवान शिव का ब्रह्मांड के सर्वश्रेष्ठ नर्तक के रूप में चित्रण है। शिव के नटराज मुद्रा और इस कलाकृति का वर्णन कई आगम हिंदु ग्रंथों में किया गया है। इसकी प्रमुख विशेषताओं को हम निम्नलिखित रूप में देख सकते हैं
. नटराज की मूर्ति मुख्यत: कांसे से निर्मित है। इसमें एक कांसे का गोल चक्र है जो जीवन-मृत्यु के चक्र को दर्शाता है और इससे मुक्ति है अर्थात् मोक्ष के लिये आपको शिव के शरण में आना पड़ेगा।
• ऊपरी दाये हाथ में डमरू है जो सृजन की ध्वनि का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि संसार की सभी कृतियाँ डमरू की ध्वनि से भी सृजित हुई है।
• ऊपरी बाएँ हाथ में अग्नि है जो विनाश का प्रतीक है।
• निचला दाया हाथ अभय मुद्रा में है जो भक्तों को अभय का वरदान देता है।
निचला बाया हाथ उठे हुए पैर की तरफ इशारा करता है जो कि मोक्ष के मार्ग को दर्शाता है।
शिव के पैरों के नीचे एक बौना राक्षस है जो अज्ञानता व अंकार का प्रतीक है। यह दर्शाता है कि शिव अहंकारी का नाश करते हैं।
.शिव के बाँह में लिपटा हुआ सर्प कुंडलिनी शक्ति को दर्शाता है। शिव की कुंडलिनी शक्ति सर्वोच्च है।
• शिव की जटाएँ गंगा नदी के प्रवाह को दर्शाती हैं।
• शिव के कान की बालियाँ अर्द्धनारीश्वर रूप को दर्शाती हैं, क्योंकि एक कान की बाली छोटी है जो पुरुष रूप को इंगित करती है जबकि दूसरी बड़ी बाली महिला रूप की ओर इंगित करती है। •अर्द्धचंद्रमा शिव की महिमा को दर्शाती है।
उपरोक्त दार्शनिक व सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण नटराज की कांस्य मूर्ति को चोल कला सांस्कृतिक निकष कहा गया है।